अनुभव जिसने बदल दी आरएसएस के प्रति धारणा
Rahul Kaushik
बीते दिनों मुझे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, दिल्ली प्रान्त की तरफ से आयोजित प्रथम वर्ष शिक्षण वर्ग के समापन कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. मैं भाजपा के कार्यक्रमों में तो कई बार गया हूं पर संघ के किसी समारोह में आने का मेरा यह पहला अवसर था. कार्यक्रम एक खुले मैदान में आयोजित था. चूँकि मैदान बड़ा था इसीलिए चारो दिशाओं में टेंट लगा कर एक हिस्सा तैयार किया जहाँ कार्यक्रम हो रहा था.
शिक्षण प्राप्त करने आये स्वंयसेवकों ने अपनी विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन किया. उसके बाद मुख्य वक्ता श्री रामेश्वर जी के संबोधन का समय आया. जैसे ही रामेश्वर जी ने अपना संबोधन शुरू किया, जोरदार आंधी-तूफ़ान ने दस्तक दी. चूँकि टेंट चारों दिशाओं में लगा था और हवा पास होने की जगह नहीं मिल रही एक पल को लगा कि कहीं ये टेंट हमारे ऊपर ही न गिर जाये. स्टेज भी साधारण सी बल्लियों से बनाया गया और उसपर भी हवा का बहुत दबाब था. ये सब चंद सेकंड में हुआ, अब मैं तो भागने की फ़िराक में था, क्योंकि ऐसी परिस्थिति तो प्रशिक्षित इवेंट मैनेजर भी स्थिति न सम्हाल पाए तो ये लाठी डंडे, निक्कर पहने,टोपीधारी क्या सम्हाल पाएंगे!
जिस मंच से मुख्य वक्ता संबोधित कर रहे थे वो मंच हिलोरें ले रहा था. मुझे तो लगा कि वक्ता अभी मंच से कूद के भाग लेगा, भला ऐसी भयानक आंधी और लगभग गिरने वाले मंच पर कोई अपनी जान जोखिम में क्यों डालेगा? लेकिन अगले चंद सेकंडों में जो हुआ उसने मेरा दृष्टिकोण बदल के रख दिया. जैसे ही आंधी-तूफ़ान ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू किया वैसे ही स्वयंसेवक हरकत में आ गये. जो जिस खम्बे के पास बैठा था उसने वहां लगे टेंट के कपड़ों को खम्बों से खोल दिया.
लगभग 20 स्वंयसेवक उस मंच की तरफ दौड़े जो हवा के कारण हिलोरों ले रहा था और जल्दी से चारों तरफ से उस मंच को पकड़ लिया. लोहे की हर पाइप को 6-7 स्वयंसेवक कसकर पकड़े हए थे ताकि मंच को कोई नुकसान न पहुंच पाए. यद्यपि टेंट की व्यवस्था टेंट वालों की रही होगी परन्तु उस समय दूर-दूर तक टेंट हाउस का कोई आदमी नहीं दिख रहा था. कुछ ही क्षणों में उन युवाओ ने टेंट का हर पिलर पकड़ लिया और टेंट के कपड़े खोल दिए जिसकी वजह से हवा का सामूहिक दबाब कम हो गया. ये सब आकस्मिक हुआ.
इस सब में जो सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाली बात थी वो यह थी कि संघ के कार्यक्रम के मुख्य वक्ता का व्यवहार. मंच हिलोरों ले के हवा में तैराकी सा कर रहा था, वक्ता के ठीक ऊपर मंच की छत का कपड़ा बांधने के लिए प्रयोग हुआ लोहे का स्तम्भ भी उखड गया था, वो कभी भी उनके ऊपर गिर सकता था. उसके गिरने से शायद उनकी जान भी जा सकती थी.
इस सबके बाद भी न तो वक्ता के एक शब्द में डर का भाव दिखा और न ही उनके चेहरे पे कोई ऐसा चिंता का भाव दिखा. ऐसे ही आंधी-तूफ़ान में वक्ता ने पूरे 40 मिनट संबोधित किया तथा अपने भाषण में आंधी का जिक्र तक नहीं किया. ये अत्यंत विस्मयकारी अनुभव था. किस प्रकार चंद सेकंड में बिना किसी पूर्व नियोजित योजना के स्वंयसेवकों ने भयानक आंधी में कार्यक्रम संपन्न कराया, हर एक स्तम्भ पे 2-2 स्वंयसेवक तन कर खड़े थे, कुछ तो ऊपर चढ़कर लटक गए थे. मुझे डर लग रहा था कि उन में से कोई कहीं गिर न जाए. मंच पर एक व्यक्ति तो लगभग 40 मिनट ऊपर की तरफ हाथ और गर्दन किए उस उखड़े लोहे के स्तम्भ को, कि कहीं वह नीचे गिरने पे वक्ता/मंचासीन व्यक्तियों को न लगे, उसके लिए खड़ा रहा. वो जिस मंच पर खड़ा था, वह हिलोरों ले रहा था. उसे लगभग 25 स्वंयसेवक नीचे से पकडे हुए थे. क्या गज़ब का भरोसा था एक दूसरे पर!
इसी आंधी तूफ़ान में मुख्य वक्ता ने संबोधन के दौरान कहा कि 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व्यक्ति निर्माण की प्रयोगशाला है'. ये लाइन मैंने अनेक संघ के व्यक्तियों से कई बार सुनी तो थी, पर जब उनका मैनेजमेंट देखा तो ये लाइन चरितार्थ सिद्ध हो गयी. क्या गज़ब के व्यक्तियों का निर्माण किया है, मुख्य वक्ता एक बड़े अधिकारी थे और जो स्वयंसेवक उनका मंच सम्हाल रहे थे उनसे उनका कोई व्यक्तिगत परिचय भी नहीं था, ऐसे में अपनी जान को उनके हाथों में दे देना एक विश्वास/भरोसे की कहानी बयाँ करती है जो कि एक स्वयंसेवक का दूसरे स्वयंसेवक के प्रति होता है. जब मैंने ये दृश्य देखा तो मैं आश्वस्त हो गया कि समाज इन स्वंयसेवकों के हाथो में सुरक्षित है.
शायद इसी चरित्र निर्माण, व्यक्ति निर्माण की बात संघ के लोग करते हैं, मैंने स्वयं अनुभव किया तो सोचा आपके साथ साझा करूँ. शायद यही छोटी-छोटी चीज़ें इस संगठन को इतना महान बनाती है. मेरी शुभकामनाएं ऐसे संगठन को, मेरी अपनी इच्छा है कि प्रत्येक व्यक्ति इन स्वंयसेवकों जैसा बने. क्या गज़ब का काम करते हैं, क्या संस्कार देते है बच्चों को ये लोग ... समय मिले तो कभी ऐसे वर्गों का भ्रमण कीजिए आप स्वयं में एक नई स्फूर्ति एवं उर्जा पाएंगे.
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